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दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वे᳕ऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ताभ्याम्। आद॑दे॒ रावा॑सि गभी॒रमि॒मम॑ध्व॒रं कृ॑धीन्द्रा॑य सु॒षूत॑मम्। उ॒त्त॒मेन॑ प॒विनोर्ज॑स्वन्तं॒ मधु॑मन्तं॒ पय॑स्वन्तं निग्रा॒भ्या᳖ स्थ देव॒श्रुत॑स्त॒र्पय॑त मा॒ ॥३०॥

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पद पाठ

दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुऽभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। आ। द॒दे॒। रावा॑। अ॒सि॒। ग॒भी॒रम्। इ॒मम्। अ॒ध्व॒रम्। कृ॒धि॒। इन्द्रा॑य। सु॒षूत॑मम्। सु॒सूत॑मा॒मिति॑ सु॒ऽसूत॑मम्। उ॒त्त॒मेनेत्यु॑त्ऽत॒मेन॑। प॒विना॑। ऊर्ज्ज॑स्वन्तम्। मधु॑मन्त॒मिति॒ मधु॑ऽमन्तम्। पय॑स्वन्तम्। निग्रा॒भ्या᳖ इति॑ निऽग्रा॒भ्याः᳖ स्थ॒। दे॒व॒ऽश्रुत॒ इति देव॒श्रु॒तः॑। त॒र्पय॑त। मा॒ ॥३०॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:30


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सभापति कर-धन देनेवाले प्रजाजनों को कैसे स्वीकार करे, यह अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - सब सुख देने (सवितुः) और समस्त ऐश्वर्य्य के उत्पन्न करनेवाले जगदीश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए संसार में (अश्विनोः) सूर्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) बल और पराक्रम गुणों से (पूष्णः) पुष्टि करनेवाले सोम आदि ओषधिगण के (हस्ताभ्याम्) रोगनाश करने और धातुओं की समता रखनेवाले गुणों से (त्वा) तुझ कर-धन देनेवाले को (आददे) स्वीकार करता हूँ। तू (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवाले मेरे लिये (उत्तमेन) उत्तम अर्थात् सभ्यता की (पविना) वाणी से (इमम्) इस (गभीरम्) अत्यन्त समझने योग्य (सुषूतमम्) सब पदार्थों से उत्पन्न हुए (ऊर्जस्वन्तम्) राज्य को बलिष्ठ करनेवाले (मधुमन्तम्) समस्त मधु आदि श्रेष्ठ पदार्थयुक्त (पयस्वन्तम्) दुग्ध आदि सहित कर-धन को (अध्वरम्) निष्कपट (कृधि) कर दे, (देवश्रुतः) श्रेष्ठ राज्य-गुणों को सुननेवाले तुम मेरे (निग्राभ्यः) निरन्तर स्वीकार करने के योग्य (स्थ) हो (मा) मुझे इस कर के देने से (तर्प्पयत) तृप्त करो ॥३०॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनों की योग्यता है कि सभाध्यक्ष को प्राप्त होकर उस के लिये अपने समस्त पदार्थों से यथायोग्य भाग दें, जिस कारण राजा, प्रजापालन के लिये संसार में उत्पन्न हुआ है, इसी से राज्य करनेवाला यह राजा संसार के पदार्थों का अंश लेनेवाला होता है ॥३०॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ सभापतिः करधनप्रदं प्रजापुरुषं कथं स्वीकुर्य्यादित्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(देवस्य) सर्वसुखप्रदातुः (त्वा) त्वां करधनदातारम् (सवितुः) सकलैश्वर्य्यस्य प्रसवितुर्जगदीश्वरस्य (प्रसवे) प्रसूते जगति (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोः (बाहुभ्याम्) बलवीर्य्याभ्याम् (पूष्णः) सोमाद्योषधिगणस्य (हस्ताभ्याम्) रोगनाशकधातुसाम्यकारकाभ्यां गुणाभ्याम् (आददे) गृह्णामि (रावा) दाता (असि) (गभीरम्) अगाधगुणम् (इमम्) प्रत्यक्षम् (अध्वरम्) निष्कौटिल्यम् (कृधि) कुरु (इन्द्राय) परमैश्वर्यवते मह्यम् (सुषूतमम्) सुष्ठु सूते तम् (उत्तमेन) प्रशस्तेनेव (पविना) वाचा। पविरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (ऊर्जस्वन्तम्) उत्तमपराक्रमसम्बधिनम् (मधुमन्तम्) प्रशस्तमध्वादिपदार्थयुक्तम् (पयस्वन्तम्) बहुदुग्धादिमन्तम् (निग्राभ्याः) नितरां ग्रहीतुं योग्याः (स्थ) भवथ (देवश्रुतः) या देवान् शृण्वन्ति ताः (तर्पयत) प्रीणीत (मा) माम् ॥ अयं मन्त्रः शतः (३.९.४.३-६) व्याख्यातः ॥३०॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे प्रजाजन ! अहं देवस्य सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां त्वामाददे, त्वमिन्द्राय मह्यमुत्तमेन पविना वचसेमं गभीरं सुषूतममूर्जस्वन्तं कारदायमध्वरं कृधि। हे देवश्रुतः प्रजा यूयं निग्राभ्या मया नितरां ग्रहीतुं योग्याः स्थ, मा मामनेन तर्प्पयत ॥३०॥
भावार्थभाषाः - प्रजाजनां योग्यतास्ति राजानमागत्य तस्मै सर्वेषां स्वकीयपदार्थानां यथायोग्यमंशभागी भवतीति ॥३०॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेने राजाला आपल्या संपत्तीचा यथायोग्य भाग द्यावा. कारण राजा हा प्रजेचा पालनकर्ता असतो. त्यासाठी तो राज्यातील वस्तूंवर कर बसवू शकतो.